चंद्रपुर के आदिवासी क्रांतिवीर ‘बाबुराव पुल्लेसूर शेडमाके’ की जीवन कहानी - भारत के मुल निवासी

शनिवार, 12 मार्च 2022

चंद्रपुर के आदिवासी क्रांतिवीर ‘बाबुराव पुल्लेसूर शेडमाके’ की जीवन कहानी

चंद्रपुर के आदिवासी क्रांतिवीर ‘बाबुराव पुल्लेसूर शेडमाके’ की जीवन कहानी

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में चंद्रपुर जिले का भी अमूल्य योगदान रहा है। अपने हक की आजादी के लिये चंद्रपुर के माटीपुत्रों ने अपने प्राण हसते हुए न्यौछावर कर दिये और इतिहास में अमर हो गये। उनके नाम, कार्य, बलिदान को भले ही हमारे इतिहासकारों ने कम आंका लेकिन इन वीरों की वीरगति को वे नकार नहीं पाये। न जाने ऐसे कितने ही आदिवासी वीर अपनी जन्मभूमि की लाज को बचाते हुए शहीद हो गये लेकिन इतिहास में उनके नाम भी विरले ही हैं। चंद्रपुर जिले के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर शहिद क्रांतिसुर्य बाबुराव शेडमाके का बलिदान विशेष महत्वपूर्ण है, वे क्रांति की मशाल थे। वीर बाबुराव शेडमाके का जन्म मोलमपल्ली (अहेरी) के श्रीमंत शेडमाके जमीनदारी में 12 मार्च 1833 को हुआ, उनकी माता का नाम जुरजायाल (जुरजाकुंवर) था। बाबुराव को 3 साल की उम्र में गोटूल में डाला गया था जहाँ वे मल्लयुद्ध में, तीरकमठा, तलवार, भाला चलाने में प्रशिक्षित हुए। वे अपने साथियों के साथ जंगल में शिकार पर जाते साथ ही शस्त्र चलाने का अभ्यास भी करते। प्राथमिक शिक्षा के लिए ब्रिटिश एज्युकेशन सेंट्रल इंग्लीश मीडियम रायपूर, (मध्यप्रदेश) से चैथी तक की पढ़ाई को पूर्ण कर वे मोलमपल्ली वापस आ गये। उम्र बढने के साथ ही वे सामाजिक नितीमूल्यों को भी सिख गये थे।

धीरे-धीरे वे अपनी जमीनदारी के गांवो के लोगों से संपर्क करने लगे, जिससे उन्हें सावकार, ठेकेदारों द्वारा सामान्य जनता पर किये गये अत्याचार की जानकारी मिली। साथ ही अंग्रेजों के आने के बाद उनके द्वारा दी गई यातनाओं की भी जानकारी उन्हें मिलने लगी। जिससे उनकी समझ और बढ़ती गई। राजपरिवार से होने के बावजूद उनमें जमीनदारी नहीं बल्कि समाज के प्रति सर्मपण का भाव अधिक था जो समय के साथ और परिपक्व होता गया। उनकी शादी आंध्रप्रदेश के आदिलाबाद जिले के चेन्नुर के मड़ावी राजघराणे की बेटी राजकुंवर से हुई। राजकुंवर भी बाबुराव के काम के प्रति उतनी ही समर्पित थी।

उस समय चांदागढ़ और उसके आस-पास के क्षेत्र में गोंड, परधान, हलबी, नागची, माडीया आदिवासियों की संख्या ज्यादा होने के कारण वैष्णवधर्म, इस्लामी, इसाई धर्म का प्रभाव ज्यादा था। 18 दिसंबर 1854 को चांदागड पर आर.एस. एलिस को जिलाधिकारी नियुक्त किया गया, और अंग्रेजों द्वारा गरिबों पर जुल्म ढाने की शुरूआत हो गई। ख्रिश्चन मिशनरी के द्वारा भोलेभाले आदिवासीयों को विकास के नाम पर उनका धर्म परिवर्तण कराकर उन्हें छला जाता था। साथ ही यह क्षेत्र वनसंपत्ती, खनिज संपदा से भरा हुआ था और अंग्रेजों को अपना कामकाज चलाने के लिये इन संपदाओं की जरूरत थी इसीलिये अंग्रेज आदिवासी की जमीनों पर जबरन कब्जा कर रहे थे, ये बात बाबुराव को कतई पसंद नहीं थी। जमीन का हक आदिवासियों का है और वो उन्हें मिलना ही चाहिए। उनका मानना था कि आदिवासी जिस तरह सामुदायीक जीवन पद्धती एवं सांस्कृतिक जीवन शैली में जीते हैं उन्हें वैसे ही जीना चाहिए, और धर्मांतरण कर अपनी असल पहचान नहीं खोनी चाहिए। इस तरह की चीजों ने उनके मन में विद्रोह की ज्वाला प्रज्व्लित कर दी और मरते दम तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़कर अपने लोगों की रक्षा करने का उन्होंने संकल्प लिया। इस संकल्प को पूर्ण करने के लिए 24 सितंबर 1857 को उन्होंने ‘जंगोम सेना’ की स्थापना की।


अडपल्ली, मोलमपल्ली, घोट और उसके आसपास की जमीनदारी से 400-500 आदिवासी और रोहिलों की एक फौज बनाकर उन्हें विधिवत् शिक्षण दिया और अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने चांदागढ़ से सटे राजगढ़ को चुना, राजगढ़ अंग्रेजों के कब्जे में था जिसकी जिम्मेदारी अंग्रेजों ने रामशाह गेडाम को सौपी थी। 7 मार्च 1858 को बाबुराव ने अपने साथियों समेत राजगढ़ पर हमला कर दिया और संपूर्ण राजगढ़ को अपने अधिकार में कर लिया। राजगढ़ का जमींदार रामजी गेडाम भी इस युद्ध में मारा गया, राजगढ़ में हुई हार से कैप्टेन डब्ल्यु. एच. क्रिक्टन परेशान हो गया और राजगढ़ को वापस पाने के लिये 13 मार्च 1858 को कैप्टेन क्रिक्टन ने अपनी फौज को बाबुराव की सेना को पकडने के लिए भेज दिया। राजगढ़ से 4 कि.मी. दुर नांदगांव घोसरी के पास बाबुराव और अंग्रजों के बीच जम कर लड़ाई हुई। कई लोग मारे गये, इस युद्ध में बाबुराव शेडमाके की जीत हुई।

राजगढ़ की लड़ाई के बाद अडपल्ली-घोट के जमीनदार व्यंकटराव राजेश्वर राजगोंड भी बाबुराव के साथ इस विद्रोह में आकर सम्मिलित हुए। जिससे कैप्टेन क्रीक्टन और परेशान हो गया। उसने अपनी फौज को बाबुराव और उसके साथियों के पिछे लगा दिया, बाबुराव सतर्क थे उन्हें अंग्रेजों की गतिविधीयों का अंदाजा था। वे जानते थे कि क्रिक्टन अपनी फौज को उन्हें खोजने के लिये जरूर भेजेगा, इसिलिये वे गढिचुर्ला के पहाड़ पर पूरी तैयारी के साथ रूके हुए थे। अंग्रेजों को खबर मिलते ही 20 मार्च 1518 को सुबह 4:30 बजे फौज ने पूरे पहाड़ को घेर लिया और फायरिंग कर दी। बाबुराव के सतर्क सैनिकों ने प्रतिकार करते हुए उन पर पत्थर बरसाये, इसमें अंग्रेजों के बंदूक की गोलियां खत्म हो गई पर पत्थरों की बारिश नहीं रूकी, कई अंग्रेज बुरी तरह से घायल हो गये और भाग गये। पहाड से निचे उतर कर बाबुराव की जंगोम सेना ने वहा पडी बंदुके, तोफे जप्त कर ली और अनाज के कोठार को आम लोगों के लिए खोल दिया। इस तरह एक बार फिर से बाबुराव और उनके सैनिकों की जीत हुई।

बाबुराव, व्यंकटराव और उनके साथियों के विद्रोह को खत्म करने के लिये परेशान कैप्टेन क्रीक्टन ने फिर से चांदागड़ से अंग्रेजी फौज को भेजा। 19 अप्रैल 1858 को सगणापुर के पास बाबुराव के साथियों और अंग्रेजी फौज में घनघोर युद्ध हुआ जिसमें एक बार फिर अंग्रेजी फौज हार गई। इसके फलस्वरूप बबुराव ने 29 अप्रैल 1858 को अहेरी जमीनदारी के चिचगुडी की अंग्रेजी छावणी में हमला कर दिया। कई अंग्रेजी सैनिक घायल हुए वहीं टेलिग्राम ऑपरेटर गार्टलड और हॉल मारे गये। इनका एक साथी पीटर वहां से भागने में कामयाब हो गया उसने कैप्टेन क्रीक्टन को जाकर सारा हवाला दिया। इस हमले के बाद अंग्रेजी फौज में बाबुराव और व्यंकटराव की दहशत बन गई। उन्हें पकडने की अंग्रेजो की सारी योजनाएं विफल हो रही थी, दो-दो टेलिग्राम ऑपरेटर्स की मौत से कैप्टेन क्रिक्टन आग बबूला हो गया था। इस घटना की जानकारी इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया को मिलते ही उसने बाबुराव को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी किया और बाबुराव शेडमाके को पकडने के लिये नागपुर के कैप्टेन शेक्सपियर को नियुक्त किया।

कैप्टेन शेक्सपियर ने वीर बाबुराव शेडमाके को पकडने के लिए उनकी बुआ रानी लक्ष्मीबाई जो अहेरी की जमीनदार थी उन्हें अपना माध्यम बनाया और बदले में बाबुराव शेडमाके की जमीनदारी के 24 गांव, और व्यंकटराव राजेश्वर गोंड की जमीनदारी के 67 गांव याने कुल 91 गांव भेट (इनाम) देने का लालच दिया । साथ ही मना करने पर अहेरी की जमीनदारी जप्त करने की धमकी भी दी। रानी लक्ष्मीबाई लालच में आ गई और बाबुराव को पकडने के लिए अंग्रेजों से मिल गई। बाबुराव इस बात से बेखबर थे। बाबुराव अपने साथियों के साथ घोट गांव में पेरसापेन पुजा में आये हुए थे, ये खबर लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों तक पहुंचाई और वे बाबुराव को पकडने के लिए घोट के पास पहुंचे। बाबुराव और अंग्रेजी फौज के बीच में घमासान युद्ध हुआ और एक बार फिर अंग्रेजी फौज उन्हें पकडने में नाकामयाब रही, और बाबुराव वहां से सही सलामत निकल गये। इस हार के बाद शेक्सपियर बौखला गया उसने घोट की जमीनदारी पर कब्जा कर लिया। इधर अचानक से हुए युद्ध में बाबुराव के कई साथी मारे गये, साथ ही आम लोग भी इसकी चपेट में आ गये। बाबुराव के आंदोलन में कई अड़चने आने लगी। उनके और उनके साथियों की जमीने, जमीनदारी जप्त कर ली गई। व्यंकटराव जंगल में छिप गये जंगोम सेना बिखरने लगी, और बाबुराव अकेले पड़ गये।

घोट में हुई हार के बाद अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई पर और दबाव बनाया। लक्ष्मीबाई को बाबुराव के अकेले पड़ने की खबर मिलते ही उसने बाबुराव को पकड़ने के लिए रोहिलों की सेना को भोपालपटनम भेज दिया, बाबुराव वहा कुछ दिन के लिये रूके हुए थे। रात को निंद में रोहिलों ने उन्हें पकड़ लिया उस वक्त बाबुराव ने उन्हें विरोध न करते हुंए उन्हे अपने काम के उद्देश्य को समझाया। और सही समय देखकर चुपके से वहा से निकल गये। बाबुराव लक्ष्मीबाई की सेना से बच निकलने की खबर कैप्टेन को मिलते ही वो झल्ला गया। बाबुराव अहेरी आ गये। इसकी जानकारी रानी लक्ष्मीबाई को मिलते ही उसने बाबुराव को अपने घर पर खाने का निमंत्रण दिया। वे निमंत्रण स्वीकार कर लक्ष्मीबाई के घर पहुंचे इसकी खबर लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों तक पहुंचा दी। खाना खाते समय अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई के घर को घेरा डाल दिया और बाबुराव को बंदी बना लिया। बाबुराव को अंग्रेजों ने पकड़ लिया है ये बात व्यंकटराव तक पहुंची और वे बस्तर चले गये। बाबुराव की गिरफ्तारी के बाद उनके अन्य साथियों को भी पकड़ लिया गया। बाबुराव और उनके साथियों पर क्रिक्टन की अदालत में गार्टलड और हॉल की हत्या एवं अंग्रेज सरकार के खिलाफ कारवाई करने का मुकदमा चलाया गया। उन्होंने अपने फैसले में बाबुराव को फांसी और उनके साथीयों को 14 वर्ष कारावास का दण्ड सुनाया। 21 अक्टूबर 1858 को बाबुराव को फांसी की सजा सुनाई गई, 21 तारीख को शाम 4 बजे चांदागढ़ राजमहल, जिसको जेल में परिवर्तित कर दिया गया था, वहां के पीपल के पेड़ पर उन्हें फासी दी गई। उस वक्त कैप्टेन क्रिक्टन उनके दायी ओर और कैप्टेन शेक्सपिसर बायी ओर खड़े थे। बंदुकों की सलामी के साथ दोनो कैप्टेन्स ने भी सलामी दी। मृत्यु की जांच पडताल के बाद उन्हें जेल के परिसर में मिट्टी दी गई। जिस पीपल के पेड़ पर वीर बाबुराव को फांसी दी गई वो पेड़ आज भी चंद्रपुर की जेल में ऐतिहासिक विरासत के रूप में खड़ा है। हर साल 21 अक्टूबर को सारी जनता, समाज पीपल के पेड़ के पास एकत्रित होकर वीर बाबुराव को सम्मानपूर्व श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।

वीर बाबुराव शेडमाके के बारे में एक आश्चर्यकारक घटना का जिक्र हमेशा कहने सुनने में आता रहा है कि उन्होंने एक बार ताडोबा के जंगल में बांस का फल जिसे ‘ताडवा’ कहा जाता है उसका सेवन कर लिया था वो फल बहुत जहरिला होता है और जो व्यक्ति उसे पाचन कर लेता है उसका शरीर वज्रदेही हो जाता है। बाबुराव ने उसे प्राशन कर लिया था जिससे वे बेहोश हो गये थे लेकिन कुछ देर बाद उन्हें होश आ गया और उसके बाद उनके शरीर पर किसी भी वार का कोई असर नहीं हो रहा था उनमें एक अद्भूत शक्ति आ गयी थी। वे मीलों तक बिना थके तेजी से भाग सकते थे। लक्ष्मीबाई के घर जब अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ा तो प्रतिकार करने हेतु उन्होंने पानी पीने वाले लोटे से कई सैनिकों को घायल कर दिया जिसमें एक की मौत हो गई। जेल में जब उन्हें फांसी दी गयी तो उनका शरीर पत्थर कि तरह था और गर्दन भी सख्त हो गई थी, जिससे फांसी की रस्सी खुल गई। उन्हें फिर से फांसी पर लटकाया गया लेकिन फिर रस्सी खुल गई। ऐसा तीन बार हुआ चैथी बार फांसी होने के बाद उनकी मौत की पुष्टी की गई लेकिन अंग्रेजों में उनका इतना खौफ था कि मौत की पुष्टी करने के लिए उन्होंने बाबुराव शेडमाके के पार्थिव को खौलती चुना भट्टी में डाल दिया। इस घटना का जिक्र महाराष्ट्र की चांदा डिस्ट्रीक गैज़ेटीर्स में भी है उसमें लिखा गया है कि:-

बाबुराव की फांसी के बाद उनके साथी व्यंकटराव को भी 2 साल बाद अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उनपर मुकदमा चलाकर 30 मई 1860 को उन्हें भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। बाबुराव को गिरफ्तार कराने वाली लक्ष्मीबाई को बाबुराव और व्यंकटराव की जमीनदारी इनाम में दी गई। जिस जमीनदारी के लालच में लक्ष्मीबाई ने बाबुराव को पकडवाया था उनकी जमींदारी भी सन 1951 में समाप्त कर दि गई। और लक्ष्मीबाई ने जो देशद्रोह कर चंद्रपुर जिले को कलंकित किया था उसके लिए उनकी निंदा की गई।

इस तरह 25 साल की कम उम्र में बाबुराव शेडमाके अपने शौर्य का प्रतिक दिखाते हुए स्वतंत्रता की खातिर बलिदान हो गये। उनके शौर्य और साहस के लिए भारत सरकार ने भारतीय डाक द्वारा 12 मार्च सन 2007 को उनके जन्मदिवस पर उनके नाम का एक स्टॅम्प (टिकीट) जारी किया। ऐसे महान वीर सपुत की याद में चंद्रपुर में उनका एक स्मारक बनाने का प्रयास हमारा आदिवासी समाज कई वर्षों से कर रहा है लेकिन सरकार इस पर आजतक मौन हैं। चांदागढ़ के ऐतिहासिक किले की हालत खस्ता हो रही है इस पर भी शासन मौन है सिर्फ पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा देने से किले की हिफाजत नहीं हो सकती उसकी मरम्मत भी की जानी चाहिए। हर साल वीर बाबुराव शेडमाके बलिदान दिवस पर हजारों की संख्या में आदिवासी सगाजन चंद्रपुर जेल में पीपल के पेड़ के पास एकत्रित होकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। गोंड राजाओं की धरती पर आज उनका अपना कोई नामोनिशान नहीं रह गया हैं, जो हैं वो भी ध्वस्त होने की कगार पर हैं। इसे बचाने के लिये सारे समाज को एकजुट होकर साहस के साथ इस समस्या का समाधान करने की जरूरत हैं वो ही हमारे शहिदों के लिये खरी श्रद्धांजली साबित होगी।

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