विजयनगर साम्राज्य के अजेय राजा कृष्णदेव राय नायक
कृष्णदेव राय नायक विजयनगर के सबसे कीर्तिवान राजा थे , जिन्होंने 1506 ई . से 1526 ई . तक शासन कियाः अद्भुत शौर्य और पराक्रम के प्रतीक राजा कृष्णदेव राय का मूल्यांकन करते हुए इतिहासकारों ने लिखा है कि इनके अंदर हिन्दू जीवन आदर्शों के साथ ही सभी भारतीय सम्राटों के सद्गुणों का समन्वय था ।
कृष्णदेव राय नायक का इतिहास |
इनके शासन में विक्रमादित्य जैसी न्याय व्यवस्था थी , चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक जैसी सुद्दढ़ शासन व्यवस्था तथा शृंगेरी मठ के शंकराचार्य महान संत विद्यारण्य स्वामी की आकांक्षाओं एवं अजेय योद्धा- बाजीराव बल्लाल भट्ट की तरह ही राजा आचार्य चाणक्य के नीति तत्वों का समावेश था । कृष्णदेव राय एक अजेय योद्धा एवं उत्कृष्ट युद्ध विशारद थे । परिचय- महान राजा कृष्णदेव राय नायक का जन्म 16 उनके शासन से पहले दक्षिण भारत के राज्य आपस में लड़ते फरवरी 1471 को वर्तमान कर्नाटक के हम्पी ( हस्तिनावती ) रहते थे । इनमें चार राजघराने वारंगल के ककातिया , मध्य में हुआ था । उनके पिता का नाम तुलुवा नरसा नायक और दक्षिण पठारी क्षेत्र के होयसल , देवगिरि के यादव और धुर माता का नाम नागला देवी था । उनके बड़े भाई का नाम वीर दक्षिण के पंड्या । अपने 21 वर्ष के शासन ( 1506 से नरसिंह था । नरसा नायक विजयनगर साम्राज्य के शासक 1530 ) में उन्होंने 14 युद्धों का सामना किया और सभी में सालुव वंश के सेनानायक थे तथा शासक उमाडि नरसिंह के विजय प्राप्त की । उनका सबसे उल्लेखनीय युद्ध था- बीजापुर , संरक्षक भी थे । जब साम्राज्य में इधर - उधर विद्रोही सिर उठा अहमदनगर और गोलकुंडा के सुल्तानों की संयुक्त सेना के रहे थे , तुलुवा नरसा नायक ने 1461 में शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली । 1503 में नरसा नायक की मृत्यु के दक्षिण की विनय में राजा कृष्णदेव राय ने शिव - समुद्रम बाद कृष्णदेव राय के बड़े भाई वीर नरसिंह ने राज सिंहासन के युद्ध में कावेरी नदी के प्रवाह को परिवर्तित करके अपूर्व सम्हाला । नरसिंह का पूरा शासनकाल आंतरिक विद्रोह तथा रणकौशल का परिचय दिया और उस अजेय जल दुर्ग को आक्रमणों से प्रभावित रहा ।
40 वर्ष की उम्र में ही बीमारी के जीत लिया । उस समय गजपति प्रताप रुद्र का राज्य कारण उनकी मृत्यु हो गई । वीर नरसिंह के देहान्त के बाद 8 विजयवाड़ा से बंगाल तक फैला था । गजपति के उदयगिरि अगस्त 1506 ( माघ शुक्ल 14 वि . संवत् 1566 ) को किले की घाटी अत्यन्त संकरी थी , अत : एक अन्य पहाड़ी कृष्णदेव राय का विजयनगर साम्राज्य के सिंहासन पर पर मार्ग बनाया गया और दुश्मन सेना को चकमा देकर राजतिलक हुआ । उनकी सेना ने किला जीत लिया । इसी तरह कोण्डविड के राज्य विस्तार- राजा कृष्णदेव राय कूटनीति में माहिर किले में गजपति की विशाल सेना थी और नीचे से किले के थे । उन्होंने अपनी बुद्धिमानी से आन्तरिक विद्रोहों को शांत ऊपर चढ़ना असंभव था । राजा कृष्णदेव राय ने वहां कर बहमनी सुल्तानों के राज्यों पर अधिकार हासिल किया । पहुंचकर मचान बनवाए , ताकि किले के समान ही धरातल उन्होंने राजकाज संभालने के बाद अपने साम्राज्य का विस्तार से बाण वर्षा हो सके । यहां से गजपति की रानी तथा राज अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक कर लिया था , परिवार के कई सदस्य बंदी बना लिए गए । उनकी कूटनीति जिसमें आज के कर्नाटक , तमिलनाडु , तेलंगाना , आन्ध्रप्रदेश , से गजपति को भ्रम हो गया कि उसके महापात्र 16 सेनापति केरल , गोवा और उड़ीसा प्रदेश आते हैं । राज्य की सीमाएं कृष्णदेव राय से मिले हुए हैं । अत उन्होंने कृष्णदेव राय से पूर्व में विशाखापट्टनम , पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में संधि कर ली और अपनी पुत्री जगन्मोहिनी का विवाह उनसे भारतीय प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक थी । हिन्द महासागर में कर दिया । इस तरह मदुरै से कटक तक के सभी किले हिन्द स्थित कुछ द्वीप भी उनके आधिपत्य में थे । साम्राज्य में आ गए । पश्चिमी तट पर भी कालीकट से गुजरात उत्तम से सर्वोत्तम वही हुआ है जिसने बड़ा दिल रख कर आलोचनाओं को सुना और सहा हैउठानी पड़ी । पुर्तगाली भयभीत होकर समझ गये कि हिंदू लड़ाई के परिणामस्वरूप बहमनी सुल्तानों को भारी क्षति राजा की सहायता ( अनुकम्पा ) के बिना उनका व्यापार संभव नहीं है और उन्होंने राजा से मित्रता की । भारतीयों में आत्म गौरव और स्वाभिमान का प्रबल जनज्वार खड़ा हो गया । सम्राट कृष्णदेव राय ने इस सफलता पर विजयनगर में तक के राजागण सम्राट कृष्णदेव राय को कर देते थे । बहमनी सुल्तानों के प्रति रणनीति- उस काल में बहमनी सुल्तानों के पास प्रचण्ड शक्ति थी । अतः राजा कृष्णदेव राय ने उनके विरुद्ध धैर्य और कूटनीति का प्रयोग किया । गोलकुण्डा का कुली कुतुबशाह , बीजापुर का आदिलशाह इत्यादि शक्तिशाली होने के साथ ही क्रूर ओर निर्मम सुल्तान थे । वे जहां भी विजयी होते , वहां हिन्दुओं का कत्लेआम , मंदिरों को ध्वस्त करना और लूटना उनके लिए सामान्य बात थी । शानदार उत्सव का आयोजन किया । ले इन मुस्लिम सुल्तानों को समूल नष्ट नहीं करना बाद में मंहगा पड़ा और सभी मुस्लिम रियासतों ने संगठित हो दिसम्बर 1564 में विजयनगर पर हमला बोला । यह युद्ध तालिकोट में हुआ । इस युद्ध में विजयनगर सेना की मुस्लिम रायचूर की विजय- सबसे कठिन और भारतवर्ष का सबसे विशाल युद्ध रायचूर के किले के लिये हुआ । घटनाक्रम के अनुसर राजा कृष्णदेव राय ने एक मुस्लिम टुकड़ियों की गद्दारी के कारण सुल्तानों की संयुक्त सेना केवल जीता बल्कि विजयनगर में लूटमार , हत्याओं , र दरबारी सीडे मरीकर को 50000 सिक्के देकर घोड़े खरीदने का वो तांडव हुआ , जिसकी तुलना नादिरशाह की दिल्ली के लिये गोवा भेजा था , पर वह आदिलशाह के यहाँ भाग और कत्लेआम से की जा सकती हैं । बीजापुर , बीदा गया । सुल्तान आदिलशाह ने उसे वापस भेजना अस्वीकार गोलकोण्डा तथा अहमदनगर की सेना लगभग 5-6 महीने कर दिया । तब राजा ने बीजापुर के खिलाफ युद्ध की घोषणा उस नगर में रही । इस अवधि में उसने इस वैभवशाली नगर कर दी । कूटनीतिक तरीके से बरार , बीदर , गोलकुंडा के की ईंट से ईंट बजा दी । ग्रंथागार व शिक्षा केन्द्रों को आग सुल्तानों को उन्होंने आदिलशाह की सहायता नहीं करने की की चढ़ा दिया गया । मंदिरों और मूर्तियों पर लगातार चेतावनी दी । 16 मई 1520 को युद्ध प्रारंभ हुआ और आदिलशाह की करारी पराजय हुई । सुल्तान वहां से भाग हथौड़े बरसते रहे । हमलावरों का एकमात्र लक्ष्य था हिन्दु साम्राज्य विजयनगर का ध्वंस और लूट । गया और रायचूर किले पर विजयनगर साम्राज्य का अधिकार हो गया । आसपास के अन्य सुल्तानों तथा पुर्तगालियों में राजा कृष्णदेव का सैन्यबल- विभिन्न युद्धों मे कृष्णदेव राय की इस विजय से भय व्याप्त हो गया । जब लगातार विजय के कारण अपने जीवनकाल में ही राजा आदिलशाह का दूत क्षमायाचना के लिए आया तो राजा का कृष्णदेव राय लोककथाओं के नायक हो गये थे । उनके उत्तर था कि स्वयं आदिलशाह आकर उनके पैर चूमे । पराक्रम की कहानियां प्रचलित हो गई थीं । 651 हाथियों की दीवानी का युद्ध- हालांकि सभी बहमनी सुल्तान सेना से सुसज्जित मुख्य सेना में 10 लाख सैनिक तथा विजयनगर से पराजित होते रहे थे , किन्तु उनकी धार्मिक 22000 घुड़सवार थे । राजा कृष्णदेव राय के नेतृत्व में 6000 कट्टरता ने राजा कृष्णदेव राय की उदारता को भुला दिया घुड़सवार , 4000 पैदल और 300 हाथी अलग से थे । और एक समय ऐसा भी आया जब बीदर , बीजापुर , यात्री विवरण- कई विदेशी यात्रियों ने तत्कालीन अहमदनगर , गोलकुण्डा आदि दक्षिण के लगभग सभी विजयनगर साम्राज्य की परिस्थितियों का वर्णन किया है । सुल्तानों ने मिलकर कृष्णदेव राय के विरुद्ध जिहाद छेड़ कृष्णदेव के दरबार में कई वर्षों तक रहने वाले पुर्तगाल के दिया । यह युद्ध " दीवानी " नामक स्थान पर हुआ । मलिक यात्री डोमिंगो पाएस , ने लिखा है कि राजा महान तथा अहमद बाहरी , नूरी खान ख्वाजा - ए - जहां , आदिलशाह , न्यायप्रिय शासक है , वह अपनी प्रजा को बहुत प्यार करता है कुतुब - उल - मुल्क , तमादुल - मुल्क , दस्तूरी ममालिक , मिर्जा लुत्फुल्लाह इन सभी ने मिलकर विजयनगर पर हमला बोल और प्रजा कल्याण की उसकी भावना ने किवदन्तियों का दिया । इसमें बीदर के घायल सुल्तान महमूद शाह द्वितीय को रूप धारण कर लिया । पुर्तगाली यात्री बारबोसा ने राजा की सेनापति रामराज तिम्मा ने बचाकर मिर्जा लुत्फुल्लाह के खेमे खूब प्रशंसा की । उसने समकालीन सामाजिक और आर्थिक में पहुंचाया लेकिन युसुफ आदिल खाँ को मार डाला । दो जीवन का वर्णन करते हए लिखा कि राजा कृष्णदेव ने बजर सुल्तानों के प्रति पक्षपात मानकर भ्रम हो गया और सुल्तानों एवं जंगली भूमि को कृषि योग्य बनाने का प्रयत्न किया तथा में आपसी अविश्वास के कारण जिहाद असफल हो गया । इस " विवाह - कर " जैसे अलोकप्रिय कर को समाप्त किया । विद्वान और संरक्षक- कृष्णदेव राय तेलगु साहित्य
महान विद्वान थे । उन्हें तेलगु व संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान था । उन्होंने संस्कृत भाषा में जाम्बवती कल्याण , परिणय , सकलकथासार - संग्रहम , मदारसाचरित्र , सत्यवधु - परिणय की रचना की । इसके अलावा उन्होंने तेलगु के प्रसिद्ध ग्रंथ " अमुक्त माल्यद " या " विस्वुवितीय " की रचना की , जो तेलगु के पांच महाकाव्यों में से एक है । कृष्णदेव राय ने इस ग्रंथ में राजस्व के विनियोजन एवं अर्थव्यवस्था के विकास पर विशेष बल देते हुए लिखा है , " राजा को तालाबों व सिंचाई के अन्य साधनों तथा अन्य कल्याणकारी कार्यों के द्वारा प्रजा को संतुष्ट रखना चाहिए । " उनके शासनकाल में तेलगु साहित्य का नया युग प्रारंभ हुआ , जब संस्कृत से अनुवाद की अपेक्षा तेलगु में मौलिक साहित्य लिखा जाने लगा । इससे तेलगु के साथ - साथ कन्नड़ और तमिल साहित्य को भी प्रोत्साहन मिला । कृष्णदेव राय महान प्रशासक होने के साथ - साथ एक महान विद्वान , विद्या प्रेमी और विद्वानों के उदार संरक्षक भी थे । यही कारण है कि वे ' अभिनव भोज ' या ' आंध्र भोज ' के रूप में प्रसिद्ध हुए । भवन निर्माता- कृष्णदेव राय महान भवन निर्माता भी थे । उन्होंने विजयनगर के पास अपनी माता के नाम पर ' नागलापुर ' नामक एक नया शहर बनवाया और बहुत बड़ा तालाब खुदवाया जो सिंचाई के काम भी आता था । उन्होंने विजयनगर में भव्य राम मंदिर , हजारा राम मंदिर ( हजार खम्भों वाला ) एवं विट्ठल स्वामी नामक मंदिर बनवाए जो उस समय की उत्कृष्ट स्थापत्य कला के नमूने हैं । सहिष्णुता- राजा कृष्णदेव राय की सबसे बड़ी उपलब्धि थी , उनके शासनकाल के समय साम्राज्य में सहिष्णुता की भावना का पनपना । पुर्तगाली यात्री बारबोसा कहता है कि राजा इतनी स्वतंत्रता देता है कि कोई भी व्यक्ति , अपनी इच्छा से आ जा सकता है , बिना कठिनाई या पूछताछ के कि वह ईसाई है या यहूदी या मूर है अथवा नास्तिक है । वह अपने धार्मिक आचार के अनुसार रह सकता है । यात्री ने राज्य में प्राप्त न्याय और समानता के लिये भी राजा की प्रशंसा की है । अष्ट दिग्गज कवि- अवंतिका के महान राजा विक्रमादित्य ने नवरत्न रखने की परंपरा की शुरुआत की थी । इसी कड़ी में राजा कृष्णदेव राय के दरबार में तेलगु साहित्य के 8 सर्वश्रेष्ठ कवि रहते थे जिन्हें " अष्टदिग्गज " कहा जाता था । अष्टदिग्गज में भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण " अल्लसानि पेद्दन " को तेलगु कविता के पितामह की उपाधि प्रदान की गई थी । कुमार व्यास का ' कन्नड़ भारत ' कृष्णदेव राय को समर्पित है । ये अष्टदिग्गज मंत्री परिषद में शामिल थे और प्रजा कल्याण के कार्यों पर नजर रखते थे । राजा तक प्रजा की सीधी पहुंच थी । राजा कृष्णदेव राय के दरबार के सबसे प्रमुख सलाहकार थे रामलिंगम । तेनाली गांव का होने के कारण उन्हें तेनालीराम कहा जाता था । तेनालीराम की बुद्धिमता के कारण विजयनगर साम्राज्य आक्रमणकारियों से सुरक्षित तो रहता ही था , साथ ही राज्य में इसके कारण कला और संस्कृति को भी बढ़ावा मिला । लोकनायक- एक अजेय सेनानायक , कुशल संगठक और प्रजारंजक प्रशासक होने के साथ - साथ कृष्णदेव राय परमभक्त और कवि भी थे । विभिन्न विषयों के देशी - विदेशी विशेषज्ञ राजा के आश्रय में साभ्राज्य की उन्नति में सहायक थे । राजा जहां - जहां गये , वहां आक्रांताओं द्वारा तोड़े गये या खंडहर बन चुके प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया , उनमें राजगोपुरम का निर्माण कराया तथा नए मंदिर बनवाए । फलस्वरूप विजयनगर स्थापत्य शैली का प्रवर्तन हुआ । रामेश्वरम् से राजमहेन्द्रपुरम , अनन्तपुर तक इसके उदाहरण दिखाई देते हैं । मंदिरों के कारण विद्यालयों का जाल भी विजयनगर साम्राज्य में बिछ गया था । व्यापक कराधान द्वारा धन संग्रह के साथ सामाजिक अभिलेख भी संग्रह हो गये थे । इस धन का मुख्य उपयोग सेना और सिंचाई के लिए होता था । उन्होंने तुंगभद्रा पर बड़ा बांध बनवाया तथा उससे नहरें निकाली । इस साम्राज्य में हजारों छोटी बड़ी सिंचाई की योजनाएं और जल स्त्रोतों पर बांध बनाए गये , नए नगर बसाए गये । आन्तरिक शांति के कारण प्रजा में साहित्य , संगीत और कला को प्रोत्साहन मिला । मृत्यु- सम्राट ने अपने इकलौते पुत्र तिरुमल राय नायक को राजगद्दी देकर प्रशिक्षित करना प्रारंभ कर दिया था , लेकिन पुत्र की एक षड्यंत्र में हत्या हो गई । इसी विषाद में राजा कृष्णदेव राय की 1526 ई में मृत्यु हो गई । बाबर ने अपनी आत्मकथा ' तुजुक - ए - बाबरी ' में कृष्णदेव राय को भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक बताया है । अजेय सम्राट कृष्णदेव राय का शासनकाल भारत का स्वर्णिम युग था , जब विजयनगर साम्राज्य का विस्तार हुआ । धर्म , कला , साहित्य का विकास एवं संरक्षण हआ । उनके शासन काल की सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने भारत में बर्बर मुगल सुल्तानों की योजना को धूल चटाकर एक आदर्श हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की , जो आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य का प्रेरणा स्रोत बना ।... जिनका स्वभाव अच्छा होता है । उन्हें कभी प्रभाव दिखाने की जरूरत नहीं होती ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें